कवित्री जयंती कुमारी की कलम से
हँसी तुम्हारी
बिजली की चमक सी
कौंध जाती है,
गाहे-बगाहे,जाने-अनजाने
मन मस्तिष्क में…..
और फिर …..
उस हँसी की आभा में
तड़प उठता है मन
मचल उठता है जी,
चुराने को, तुम्हारी हँसी,
सजाने को ,अपने होठों पे
पर हाय.. …
मिलता नहीं कुछ और
सिवा इक टीस,
इक चुभन के…
जो आँखों को दे जाती है नमी
और
होठों को सजा जाती है
दर्द की लाली से


